जन्माष्टमी आने वाली है, ऐसे समय में भगवान श्रीकृष्ण और कुंताजी की यह प्रेरक, दिव्य कथा महाभारत के युद्ध काल की है।कौरवों और पांडवों के बीच भयानक युद्ध हुआ। कौरवों का विनाश हो गया। उनकी सेना में केवल कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा ही बचे। तभी अश्वत्थामा ने प्रतिज्ञा की —
*”आज रात जब पांडव सो रहे होंगे, तब मैं उनके महल में प्रवेश कर उन्हें मार डालूंगा।”*
भगवान श्रीकृष्ण को अश्वत्थामा का यह संकल्प ज्ञात हो गया। उन्होंने सोते हुए पांडवों को जगाया और कहा —
*”यहां बहुत गर्मी है, चलो गंगा किनारे चलते हैं।”*
पांडवों का भगवान पर इतना विश्वास था कि वे जैसा कहते, वैसा करते। भगवान ने द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को भी जगाया, पर उन्होंने कहा — *”हमें बहुत नींद आ रही है, आप जाइए।”*
श्रीकृष्ण पांडवों को लेकर गंगा किनारे चले गए। उसी रात देर से अश्वत्थामा पांडवों के महल में घुसा और द्रौपदी के पाँचों पुत्रों की हत्या कर दी।
सुबह जब यह समाचार मिला, द्रौपदी अत्यंत दुखी हुईं। उन्होंने प्रतिशोध लेने के लिए अर्जुन को अश्वत्थामा के साथ युद्ध करने भेजा। अर्जुन ने अश्वत्थामा को पकड़ लिया। लेकिन जब द्रौपदी ने देखा कि अपने पाँचों पुत्रों का वध करने वाला शत्रु बंधा हुआ उनके सामने खड़ा है, तो वे पलभर के लिए पुत्र-वियोग भूल गईं।
वे अश्वत्थामा को बंधा हुआ नहीं देख सकीं। उन्होंने उसे प्रणाम किया और अर्जुन से कहा —
*”तुम यह क्या कर रहे हो? छोड़ दो इसे। यह मेरे आंगन में आया है, ब्राह्मण की पूजा करो। इसे मत मारो। आज मैं अपने पुत्रों के वियोग में रो रही हूं, यदि तुम इसे मारोगे तो इसकी मां अपने पुत्र के वियोग में रोएगी। मैं तो सधवा हूं, लेकिन यह तो विधवा है, पति के बाद पुत्र के सहारे जीती है। उसे कितना दुख होगा! यह तुम्हारे गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र है। अतिथि का सम्मान करो, इसे छोड़ दो।”*
भीम ने कहा — *”यह आततायी है, इसे मारने में पाप नहीं है।”*
तब श्रीकृष्ण ने कहा — *”द्रौपदी सही कह रही है। अश्वत्थामा को मारने की जरूरत नहीं है। उसका अपमान करके छोड़ दो, यही इसके लिए मृत्यु के समान होगा।”*
अर्जुन ने अश्वत्थामा के मस्तक से उसका मणि निकाल लिया, जिससे वह तेजहीन हो गया और उसे छोड़ दिया।
अश्वत्थामा ने बदला लेने की सोची। उसने जाना कि अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा गर्भवती है और उसके गर्भ में पांडव वंश का उत्तराधिकारी है। यदि गर्भ का नाश हो जाए, तो पांडव वंश समाप्त हो जाएगा। उसने ब्रह्मास्त्र छोड़ा, जिससे उत्तरा का शरीर जलने लगा। वह व्याकुल होकर भागती हुई भगवान श्रीकृष्ण के पास पहुंची।
द्रौपदी ने पहले ही अपनी पुत्रवधू को शिक्षा दी थी कि संकट में मनुष्य का नहीं, केवल ईश्वर का सहारा लेना चाहिए। उत्तरा पांडवों के पास न जाकर श्रीकृष्ण के पास आई।
भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से ब्रह्मास्त्र का निवारण किया और गर्भ में पल रहे परीक्षित की रक्षा की। परीक्षित ने माता के गर्भ में ही परमात्मा के दर्शन किए।
इसके बाद महाभारत का युद्ध लगभग समाप्त हो गया। श्रीकृष्ण ने द्वारका लौटने का निर्णय किया।
जब यह समाचार मिला, पांडवों की माता कुंताजी व्याकुल हो गईं और श्रीकृष्ण को रोकने के लिए उस मार्ग पर खड़ी हो गईं, जहां से उनका रथ गुजरने वाला था। भगवान ने रथ रोका और नीचे उतर आए। रोज की तरह वे कुंताजी के चरणों में प्रणाम करने वाले थे, पर आज कुंताजी ने पहले उन्हें प्रणाम किया।
भगवान ने कहा — *”आप यह क्या कर रही हैं? मैं तो आपके भाई का बेटा हूं।”*
कुंताजी ने उत्तर दिया —
*”अब तक मैं भी ऐसा ही मानती थी, पर आज आपकी कृपा से मुझे ज्ञान हुआ है कि आप किसी के पुत्र नहीं, सबके पिता हैं। आप ही आदिनारायण हैं। अतः मैं आपके चरणों में प्रणाम करती हूं। मेरी विनती है, आप यहां से मत जाइए।”*
श्रीकृष्ण ने कहा — *”अब बहुत दिन हो गए, मुझे द्वारका लौटना चाहिए।”*
कुंताजी ने अनुरोध किया — *”यदि जाना ही है, तो पहले मेरे महल में पधारें।”*
भगवान ने उनकी विनती स्वीकार की। महल में आने के बाद, सबने अपने-अपने कारण समझे कि भगवान क्यों आए। कुंताजी ने आतिथ्य के बाद कहा —
*”आप द्वारका जाएं, लेकिन मुझे कुछ दिए बिना मत जाइए।”*
भगवान ने कहा — *”मांगिए।”*
कुंताजी ने हाथ जोड़कर कहा —
*”तो, श्रीकृष्ण! मुझे ऐसा वरदान दीजिए कि मेरे जीवन में निरंतर दुख आते रहें।”*
भगवान चकित हुए और पूछा — *”ऐसा क्यों?”*
कुंताजी बोलीं —
*”हे प्रभु! जब-जब मेरे जीवन में संकट और दुख आए हैं, तब-तब आप मेरे साथ रहे हैं। हर दुख में मैंने आपका ही स्मरण किया है। इसलिए मैं दुख मांगती हूं, ताकि आपका स्मरण कभी न टूटे।”*
उन्होंने अपने जीवन की घटनाएं गिनाईं —
पति के निधन पर विधवा होकर जंगल में भटकते समय, भीम को बचाने, लक्षागृह से निकालने, द्रौपदी की लाज बचाने — हर बार आप ही ने रक्षा की।
अंत में उन्होंने कहा —
*”मुझे ऐसा सुख न मिले जिसमें भगवान भूल जाएं, केवल इतना सुख मिले जिसमें आपका स्मरण बना रहे। इसी कारण मैं आपसे दुख की मांग करती हूं, ताकि मुझे हमेशा आपकी याद बनी रहे।”*
ऐसा था कुंताजी का भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम और विरह। हम भगवान से केवल सुख और ऐश्वर्य की मांग करते हैं, लेकिन दुख की मांग करने वाली केवल कुंताजी ही थीं।
जन्माष्टमी के अवसर पर यह कथा हमें श्रीकृष्ण और उनकी फूई (पितृबुआ) के दिव्य प्रेम की याद दिलाती है। 

— **देवेन्द्र पटेल**
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